कलयुगी मांँ- बाप (कविता)-13-May-2024
कलयुगी की मांँ- बाप
कहा जाता है पूत कपूत भले ही हो किंतु माता कुमाता नहीं होती है ।किंतु आज के कलयुगी दुनिया में कई बार इसके विपरीत भी होता है। कई बार मांँ-बाप का प्यार-दुलार, ममता, धन-संपदा, शानो -शौकत का गुलाम हो जाता है। ऐसे में उनका सारा प्यार -दुलार उस बच्चे के साथ हो जाता है जिसके पास हरे -हरे नोटों की गड्डियाॅं और सोने- चांँदी की चमक है । वहीं दूसरा बच्चा जिसके अंदर मान-मर्यादा का एहसास कूट- कूट कर भरा होता है , पर उसके पास हरे- हरे नोटों की गड्ड़ियांँ तथा सोने- चांँदी, जवाहरात नहीं होते वह मांँ-बाप के प्यार- दुलार से महरूम रह जाता है। मांँ-बाप उससे रिश्ता रखने में शर्म महसूस करते हैं।तो आज की मेरी कविता कुछ ऐसे ही जज़्बातों से भरी हुई है जिसका शीर्षक है –
कलयुगी की मांँ-बाप
ज़िंदगी की राह में कुछ अपने छूट जाते हैं , बेवजह ही ना जाने क्यों हमसे रूठ जाते हैं।
उनके प्यार व आशीष को बस राह तकते रह गए, जज्बातों से खेले वो सपने थे सारे बह गए।
दिल कभी मायूस हो पूछता था क्यों, तानों-बानों का गाज आ गिरे है त्यों।
रिश्ते नहीं वहाॅं धन-संपदा सॅंजोया जाता है, इससे महरूम को झट से खोया जाता है।
शिद्दत से उनको चाहती थी बदले में नफ़रत पाई हूंँ, देती थी मान- मर्यादा और उपेक्षित होके आई हूॅं।
आशीष की इच्छा से जब चरण- स्पर्श करती थी, वो पग खींच लेते थे और मैं आहें भरती थी।
माता-पिता सा प्यार की मैं चाह रखती थी, वो खुश रहें मुझे प्यार दें इस जतन से न थकती थी।
तिरस्कार व उपेक्षा सदा हिस्से में आता था, हर रोज सुनने में एक नया किस्से में आता था।
रौंदकर मेरे अरमानों को ख़ुशी से जी रहे हैं वो, धन-संपदा का दंभ कर अकेलापन पी रहे हैं वो।
महरूमियत प्यार- दुलार की दिल में कसक जगाती है, जतन जितना भी कर लूंँ याद अक़्सर ही आती है।
प्रश्न अंतर्मन में अनेकों बार उठता है, किस गुनाह की सज़ा है ये अपना न झुकता है।
चाहा उन्हें, पूजा उन्हें उनका इंतज़ार बहुत की, बन जाएंँ मात-पिता मेरे ऐसा व्यवहार बहुत की।
सब कोशिशें बेकार थीं वहाॅं सोने- चाॅंदी की इज़्ज़त थी, एहसास व भावना वहाॅं होती बेइज़्ज़त थी।
मन बेचैन रहता है दिल आहें जब भरता है, है इश का बस आसरा उन्हीं से अर्ज करता है।
साधना शाही, वाराणसी
Gunjan Kamal
03-Jun-2024 04:28 PM
👌🏻👏🏻
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